महक उठती थी कभी
हंसती खेलती,
शोख अल्हड
सी कभी ,
स्कूल छुट्टी से,
घर तक
दौड़ी थी
कभी ,
खुश होने
के कई
बहाने थे,नाराज़ भी
होती थी
कभी,
खूबसूरत फूलों
को छू
कर, खुद
ही महक
उठती थी
कभी,
छोटी छोटी
ख्वाइशों को
खुद में
संजोती थी
कभी,
किसी सपने
को दिन
- रात देखने
की ज़िद
थी अभी
,
डर के
माँ आँचल
में छिपी
थी कभी,
दुनिया से
लड़कर चुप,
सोचने बैठी
थी अभी,
पापा के
डर से
पार्टी आधी
छोड़ी थी
कभी,
....... पर
अब
न
जाने
क्यों
?
के भरे
बाज़ार में
भी डर
के सहमी
खड़ी हूँ
मैं,
हर रिश्ते
में, खुद
को साबित
करने के
लिए अड़ी
हूँ मैं,
हर ख्वाइश
को फुसला
के सुला
दिया मैंने,
अब भी
कुछ सपनो
को कन्धों
में लिए
कड़ी हूँ
मैं,
कुछ वक़्त
साथ बिताकर,
उखड़ सी
जाती हु
मैं,
अपने ही
माँ-बाप
से परायों
की तरह
मिल आती
हूँ मैं,
ये कैसे
हालात है
मेरी ज़िन्दगी
में की
अब,
हँसते हुए
भी खुद
को चुप
करा देती
हूँ मैं,
जिनके हौसलों
ने जीना
सिखाया मुझे
आज,
उन्हें घर
पे अकेला
छोड़ आती हूँ
मैं,
हर वक़्त
लगता है
जंग लड़
रही हूँ
खुद से
मैं, हर बार
खुद को
नए ढांड
से जीना
सिखाती हूँ
मैं,
ये तो
मैं हूँ,
जो हर
वक़्त खुद
को संभाले
रखा है, वरना आज भी डर के रात में उठ जाती हूँ मैं.……
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